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आततायी की पॠरतीकॠषा [Waiting for the Assassin] Ashok Vajpeyi

2 April 2014

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आततायी की पॠरतीकॠषा

अशोक वाजपेयी

(ठक)
 
सभी कहते हैं कि वह आ रहा है
उदॠधारक, मसीहा, हाथ में जादू की अदृशॠय छड़ी लिठहॠà¤
इस बार रथ पर नहीं, अशॠवारूॠभी नहीं,
लोगों के कंधों पर चॠकर वह आ रहा है :
यह कहना मॠशॠकिल है कि वह खॠद आ रहा है
या कि लोग उसे ला रहे हैं।
 
हम जो कीचड़ से सने हैं,
हम जो खून में लथपथ हैं,
हम जो रासॠता भूल गठहैं,
हम जो अंधेरे में भटक रहे हैं,
हम जो डर रहे हैं,
हम जो ऊब रहे हैं,
हम जो थक-हार रहे हैं,
हम जो सब जिमॠमेदारी दूसरों पर डाल रहे हैं,
हम जो अपने पड़ोस से अब घबराते हैं,
हम जो आंखें बंद किठहैं भय में या पॠरारॠथना में;
हम सबसे कहा जा रहा है कि
उसकी पॠरतीकॠषा करो :
वह सबका उदॠधार करने, सब कॠछ ठीक करने आ रहा है।
 
हमें शक है पर हम कह नहीं पा रहे,
हमें डर है पर हम उसे छॠपा रहे हैं,
हमें आशंका है पर हम उसे बता नहीं रहे हैं!
हम भी अब अनचाहे
विवश करॠतवॠय की तरह
पॠरतीकॠषा कर रहे हैं!
 
(दो)
 
हम किसी और की नहीं
अपनी पॠरतीकॠषा कर रहे हैं :
हमें अपने से दूर गठअरसा हो गया
और हम अब लौटना चाहते हैं :
वहीं जहां चाहत और हिमॠमत दोनों साथ हैं,
जहां अकेले पड़ जाने से डर नहीं लगता,
जहां आततायी की चकाचौंध और धूमधड़ाके से घबराहट नहीं होती,
जहां अब भी भरोसा है कि ईमानदार शबॠद वॠयरॠथ नहीं जाते,
जहां सब के छोड़ देने के बाद भी कविता साथ रहेगी,
वहीं जहां अपनी जगह पर जमे रहने की जिद बनी रहेगी,
जहां अपनी आवाज और अंत:करण पर भरोसा छीजा नहीं होगा,
जहां दॠसॠसाहस की बिरादरी में और भी होंगे,
जहां लौटने पर हमें लगेगा कि हम अपनी घर-परछी, पॠरा-पड़ोस में
वापस आ गठहैं !
 
आततायी आठगा अपने सिपहसालारों के साथ,
अपने खूंखार इरादों और लॠभावने वायदों के साथ,
अशॠलील हंसी और असहॠय रौब के साथ..
हो सकता है वह हम जैसे हाशियेवालों को नजरअंदाज करे,
हो सकता है हमें तंग करने के छॠपे फरमान जारी करे,
हो सकता है उसके दलाल उस तक हमारी कारगॠजारियों की खबर पहॠंचाठं,
हो सकता है उसे हमें मसलने की फॠरसत ही न मिले,
हो सकता है उसकी दिगॠविजय का जॠलूस हमारी सड़कों से गॠजरे ही न,
हो सकता है उसकी दिलचसॠपी बड़े जानवरों में हो, मकॠखी-मचॠछर में नहीं।
पर हमें अपनी ही पॠरतीकॠषा है,
उसकी नहीं।
अगर आठगा तो देखा जाठगा!